Friday, October 14, 2016

अष्टसखी गोपी

गोपी 
प्राचीन साहित्य में 'गोपी' शब्द का प्रयोग पशुपालक जाति की स्त्री के अर्थ में हुआ है। इस जाति के कुलदेवता 'गोपाल कृष्ण' थे। भागवत की प्रेरणा लेकर पुराणों में गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को आध्यात्मिक रूप दिया गया है। इससे पहले महाभारतमें यह आध्यात्मिक रूप नहीं मिलता। इसके बाद की रचनाओं –हरिवंश पुराण तथा अन्य पुराणों , में गोप-गोपियों को देवताबताया गया है जो कृष्ण के ब्रज में जन्म लेने पर पृथ्वी पर अवतरित हुए। धीरे-धीरे कृष्ण भक्त संप्रदायों* में गोपी का चित्रण कृष्ण की शक्ति तथा उनकी लीला में सहयोगी के रूप में होने लगा। 

कृष्ण-भक्त कवियों ने अपने काव्य में गोपी-कृष्ण की रासलीला को प्रमुख स्थान दिया है। सूरदास के राधा और कृष्ण प्रकृति और पुरुष के प्रतीक हैं। और गोपियां राधा की अभिन्न सखियां हैं। राधा कृष्ण के सबसे निकट दर्शाई गई है, पर अन्य गोपियां उससे ईर्ष्या नहीं करतीं। वे स्वयं को कृष्ण से अभिन्न मानती हैं। 

ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त 'गोप','गोपति', और 'गोपा' शब्द गोप-गोपी-परम्परा के प्राचीनतम लिखित प्रमाण कहे जा सकते हें। इन उरूक्रम त्रिपाद-क्षेपी विष्णु के तृतीय पाद-क्षेप परमपद में मधु के उत्स और भूरिश्रृंगा-अनेक सींगोंवाली गउएँ हैं।* कदाचित इन गउओं के नाते ही विष्णु को गोप कहा गया है। इस आलंकारिक वर्णन में अनेक विद्वानों , यथा मेकडानेल, ब्लूमफील्ड ने विष्णु को सूर्य माना है, जो पूर्व दिशा से उठकर अन्तरिक्ष को नापते हुए तीसरे पाद-क्षेप में आकाश में फैल जाता है। कुछ लोगों ने ग्रह-नक्षत्रों को ही गोपी कहा है, जो सूर्य मण्डल के चारों ओर घूमते हैं। 

परन्तु गोपी शब्द की प्रतीकात्मक व्याख्या कुछ भी हुई हो, इसका साधारण अर्थ है, बल्कि अनेकानेक धार्मिक व्याख्याओं के बावजूद काव्य और साधारण व्यवहार, दोनों में निरन्तर समझा जाता रहा है। पशुपालक आभीरों या अहीरों की जाति परम्परा से क्रीड़ा-विनोदप्रिय आनन्दी जाति रही है। इसी जाति के कुलदेव गोपाल कृष्ण थे, जो प्रेम के देवता थे, अत्यन्त सुन्दर, ललित, मधुर-गोपियों के प्रेमाराध्य। ऐसा जान पड़ता है कि इस जाति में प्रचलित कृष्ण और गोपी सम्बन्धी कथाएँ और गीत छठी शताब्दी ईसवी तक सम्पूर्ण देश में प्रचलित होने लगे थे। धीरे-धीरे उन्हें पुराणों में सम्मिलित करके धार्मिक उद्देश्यपरक रूप दिया जाने लगा। दक्षिण भागवत धर्म आल्वार भक्ति के गीतों में गोपी-कृष्ण-लीला के अनेक मनोहर वर्णन मिलते हैं। काव्य में सबसे पहले 'गाहा सत्तसई'* में गोपी और उनमें विशिष्ट नामवाली राधा तथा कृष्ण के मिलन-विरह सम्बन्धी प्रेम-प्रसंग सर्वथा लौकिक सन्दर्भ वर्णित मिलते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि गोपी-कृष्ण की कथा के अनेकानेक प्रसंग लोक-कथाओं और लोक-गीतों के रूप में देश भर में प्रचलित रहे होंगे। इन कथाओं और गीतों के भाव तथा प्रसंग साहित्य में भी यदा-कदा अभिव्यक्ति पाते रहे होंगे, जिसके बहुत थोड़े से प्रमाण शेष रह गये हैं। कदाचित साहित्य के इस अंशको शिष्ट जनों में अपेक्षाकृत कम महत्त्व मिला और इसी उपेक्षाके कारण यह नष्टप्राय हो गया। जो हो, संस्कृत में 'गीतगोविन्द' (बारहवीं शती) में उसका वह रूप मिलता है , जो आगे चलकर भाषा-काव्य में विकसित हुआ। 'गीतगोविन्द' और विद्यापति की 'पदावली' से इस बात का अनुमान लगाया जा सकता है कि गोपी-कृष्ण और राधा-कृष्ण की कथा का लोक-साहित्य उस समय भी भाव-लालित्य की दृष्टि से कैसा सम्पन्न और मनोहर रहा होगा। 

मध्ययुग में कृष्ण-भक्ति-सम्प्रदायों ने पुराणों, मुख्य रूप में श्रीमद्भागवत का आधार लेकर गोपी-कृष्ण के प्रेमाख्यान को धार्मिक सन्दर्भ में आध्यात्मिक रूप दे दिया और गोपी, गोपी-भाव तथा राधा-भाव की अत्यन्त गम्भीर और रहस्यपूर्ण व्याख्याएँ होने लगीं। निश्चय ही इन व्याख्याओं के मूलाधार पुराण ही हैं, परन्तु उनके विवरण और विस्तार कहीं-कहीं स्वतन्त्र रूप में कल्पित किये गये जान पड़ते हैं। उनका प्रयोजन प्रतीकात्मक है। 

'महाभारत' में गोपियों के सम्बन्ध में कोई आध्यात्मिक व्याख्या नहीं मिलती। 
हरिवंश में, जिसे महाभारत का 'खिल' कहा जाता है, कृष्णावतार का हेतु बताते हुए कहा गया है कि वसुदेव पहले कश्यप थे और कुबेर की गौ हरण करने के अपराध में शापित होकर उन्होंने गौओं के बीच स्थित गोपरूप में जन्म लिया था।कश्यप की स्त्री अदिति और सुरभी, देवकी और रोहिणी थीं। इन्हीं के यहाँ कृष्ण ने, देवताओं को ब्रज में जन्म लेने की आज्ञा देकर, स्वयं जन्म लेने की इच्छा की थी। सैकड़ो-सहस्त्रों देवता पांचाल देश के कुरुवंश और वृष्णिवंश में उत्पन्न हुए।* 

हरिवंश में स्पष्टत: कहा नहीं गया है, परन्तु यह ध्वनित होता है कि गोप-गोपियाँ भी देव-देवियाँ ही थे। 
हरिवंश के बाद वैष्णव पुराणों में गोप-गोपियों का दैवी उत्पत्ति –विषयक न्यूनाधिक उल्लेख बराबर पाया जाता है। 
श्रीमद्भागवत में भी गोपियों को देवताओं की स्त्रियाँ कहा गया है, जो वसुदेव के भवन में जन्म लेनेवाले साक्षात भगवान विष्णु का प्रिय करने के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुई थीं।* 

परन्तु 'हरिवंश', 'विष्णुपुराण' और 'भागवत' की गोपियाँ फिर भी लौकिक रूप में ही चित्रित की गयी हैं, उनके विषय में कोई रहस्य-संकेत नहीं है। 

'पद्म' और 'ब्रह्मवैवर्त्त ' पुराणों में गोलोक के नित्य वृन्दावन की विशद कल्पना मिलती है, जिसमें परमानन्दरूप परब्रह्म श्रीकृष्ण राधा तथा गोपियों के साथ नित्य क्रीड़ारत रहते हैं। 

'ब्रह्मवैतर्त'* में वर्णन है कि नन्द व्रज में अवतीर्ण होने के पूर्व श्रीकृष्ण ने राधा तथा गोलोक के सब गोप और गोपियों को ब्रज में जन्म लेने की आज्ञा दी।* साथ ही देवी-देवताओं ने भी ब्रज में जन्म लेने के लिए गोप-गोपी का रूप धारण किया था।* 
'पद्मपुराण' के अनुसार दण्डकारण्यवासी कृष्ण-भक्त मुनियों ने भी सौन्दर्य-माधुर्य का आस्वादन करने के हेतु गोपियों का जन्म पाया था। यहीं एक दूसरे स्थल पर तांत्रिक प्रभाव के कारण वंशीरव को अनाहत नाद, कालिन्दी को सुषुम्णा तथा गोपियों को योगिनी कहा है।* एक तीसरे स्थलपर इन्हें 'श्रुतिरूपिणी' भी कहा गया है।* 

मध्ययुग के कृष्ण-भक्त-सम्प्रदायों ने ही वस्तुत: गोपियों की उत्पत्ति सम्बन्धी रहस्यात्मक कल्पनाएँ की हैं और कुछ आलोचकों ने यहाँ तक अनुमान किया हे कि 'पद्म' और 'ब्रह्मवैवर्त्त' पुराणों के राधा और गोपी सम्बन्धी अनेक विवरण उसी के प्रभाव हैं जो हो, गोपियों का उत्पत्ति सम्बन्धी उल्लेख अत्यन्त रोचक और विचारणीय है। 

निम्बार्क के सनकादि या हंस-सम्प्रदाय में कृष्ण-ब्रह्म की अचिन्त्य शक्ति को द्विविध बताया गया है- ऐश्वर्य और माधुर्य। रमा, लक्ष्मी या 'भू' नामकी उनकी ऐश्वर्य-शक्ति है और गोपी और राधा माधुर्य या प्रेम-शक्ति। 

इस प्रकार राधा तथा अन्य गोपियाँ कृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। निम्बार्करचित 'दशश्लोकी' में कहा गया है-[1] अनुरूप सौभगारूप से कृष्ण के वामांग में आनन्दपूर्वक विराजमान, समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली बृषभानुजी को नमस्कार करता हूँ, जो सहस्त्रों सखियों द्वारा परिसेवित हैं। 

गोपी सम्बन्धी सबसे अधिक विस्तार गौडीय वैष्णव (चैतन्य) सम्प्रदाय और पुष्टिमार्ग((वल्लभ-सम्प्रदाय) में मिलते हैं। गौडीय वैष्णव मत के अनुसार गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति हैं। वे अप्रकट तथा प्रकट दोनों लीलाओं में उनके नित्य परिकर के यप में निरन्तर उनके साथ रहती हैं। श्रीकृष्ण की तरह गोप-गोपियों की प्रकट और अप्रकट, दोनों शरीर होते हैं। वृन्दावन की प्रकट लीला में गोपियाँ भगवान की स्वरूप-शक्ति-प्रादुर्भाव-रूपा हैं। भगवान की आह्लादिनी गुह्यविद्या के रहस्य का प्रवर्तन उन्हीं के द्वारा होता है। वे नित्यसिद्ध हैं। रूपगोस्वामी प्रभृति चैतन्य-मत के विवेचकों ने गोपियों का वर्गीकरण करके कृष्ण की व्रजवृन्दावन की प्रेमलीला में उनके विभिन्न स्थानों का निर्देश किया है। 

'उज्ज्वल नीलमणि' के 'कृष्णवल्लभा' अध्याय के अनुसार कृष्णवल्लभाओं को पहले स्वकीया औरपरकीया-इन दो भागों में बाँटा गया है। रुक्मिणी , सत्यभामा, जाम्बवती आदि कृष्ण की विवाहिता पत्नियाँ स्वकीया हैं तथा 
उनकी प्रेयसी गोपियाँ परकीया हैं। 

परन्तु गोपियों का परकीयत्व लौकिक दृष्टिमात्र से है। वास्तव में तो वे सभी स्वकीया हैं, क्योंकि उन्होंने प्राण, मन और शरीर सभी कुछ कृष्णार्पण कर रखा है। फिर भी प्रकट लीला में इन गोपियों का परकीयात्व ही स्वीकार किया गया है। परकीया गोपियाँ-कन्या और परोढा दो प्रकार की हैं। कन्या अविवाहित कुमारियाँ हैं, जो कृष्ण को ही अपना पति मानती हैं। प्रेम-भक्ति में श्रेष्ठता परोढाओं की ही है। परोढा गोपियाँ पुन: तीन प्रकार की हैं- नित्यप्रिया, साधन-परा और देवी। जो गोपियाँ नित्यकाल के लिए नित्य वृन्दावन में श्रीकृष्ण के लीला-परिकर की अंग हैं, वे नित्यप्रिया हैं। ये वस्तुत: वे भक्त जीव हैं, जिन्होंने प्रेम-भक्ति के द्वारा भगवत्-स्वरूप में प्रवेश पा लिया है और जो नित्यसिद्ध गोपी-देह से उनकी लीला के अभिन्न अंग बन गये हैं। नित्यप्रिया गोपियों को प्राचीना भी कहा गया है, क्योंकि ये वे जीव हैं, जो बहुत लम्बी साधना के फलस्वरूप गोपी-देह पाते हैं। इनका गोपी-भाव भक्तों का साध्य नहीं है। उनका साध्य साधना-परा गोपियों का रूप है। 

ये साधना-परा गोपियाँ यौथिकी और अयौथिकी, दो प्रकार की हैं। यौथिकी अपने गणके साथ प्रेम-साधना में संलग्न रहती हैं। यौथिकी पुन: दो प्रकार की होती हैं- मुनि और उपनिषद। पौराणिक प्रमाणों के अनुसार अनेक मुनिगण जो कृष्ण के माधुर्यरूप का आव्वाद लेने के लिए गोपी-भावकी आकांक्षा करते हैं, गोपियों का जनम पाकर कृष्णकी ब्रजलीला में सम्मिलित होने का सौभाग्य लाभ करते हैं। ये ही मुनि-यूथकी गोपियाँ हैं। उपनिषद-यूथ की गोपियाँ पूर्वजन्म के उपनिषदगण हैं, जिन्होंने तपस्या करके ब्रज में गोपी रूप पाया है। 

अयौथिकी गोपियों का रूप उन कृपाप्राप्त जीवों को मिलता है, जो गोपी-भाव से भगवान् कृष्ण के प्रेम में रत रहते हैं और अनेक योनियों में जन्म लेने के बाद गोपीरूप पाते हैं ये अयौथिकी गोपियाँ नवीना भी कहलाती हैं और इन्हें भक्ति के फलस्वरूप प्राचीना नित्यप्रिया गोपियों के साथ सालोक्य प्राप्ति होती है। 

देवी उन गोपियों का नाम है, जो नित्यप्रियाओं के अशं से श्रीकृष्ण के सन्तोष के लिए उस समय देवी के रूप में जन्म लेती हैं, जब स्वयं श्रीकृष्ण देवयोनि में अंशावतार धारण करते हैं। उपर्युक्त कन्या गोपियाँ ये ही देवियाँ हैं जो नित्यप्रियाओं की परम प्रिय सखियों का पद पाती हैं। 

नित्यप्रिया गोपियों में आठ प्रधान गोपियाँ यूथेश्वरी होती है। प्रत्येक यूथ में यूथेश्वरी गोपी के भावकी असंख्य गोपियाँ होती हैं। राधा और चन्द्रावली सर्वप्रधान यूथेश्वरी गोपियाँ हैं। इनमें भी राधा सर्वश्रेष्ठ-महाभाव-स्वरूपा हैं। 

रूपगोस्वामी के अनुसार ये सुष्ठुकान्तस्वरूपा, धृतषोडश-श्रृगांरा और द्वाद्वशा भरणाश्रिता हैं उनके अनन्त गुण हैं। राधा के यूथ की गोपियाँ भी सर्वगुणसम्पन्न हैं। राधा की ये अष्टसखियाँ पाँच प्रकार की होती हैं- 
सखी (कुसुमिका, विद्या आदि) , 
नित्य –सखी (कस्तूरिका, मणिमंजरिका आदि), 
प्राण-सखी (शशिमुखी, वासन्ती आदि), 
प्रिय सखी (कुरगांक्षी, मदनालसा, मंजुकेशी, माली आदि) तथा 
परम श्रेष्ठ सखी। 
राधा की अष्टसखियाँ 

राधा की परम श्रेष्ठ सखियाँ आठ हैं- 
ललिता, 
विशाखा, 
चम्पकलता, 
चित्रा, 
सुदेवी 
तुंगविद्या, 
इन्दुलेखा, 
रग्डदेवी और 
सुदेवी हैं। चित्रा, सुदेवी तुंगविद्या और इन्दुलेखा के स्थान पर सुमित्रा, सुन्दरी, तुंगदेवी और इन्दुरेखा नाम भी मिलते हैं* 
ये अष्टसखियाँ सब गोपियों में अग्रगण्य है। इनकी एक-एक सेविका भी हैं, जो मंजरी महलाती हैं। मंजरियों के नाम ये हैं- 
रूपमंजरी, 
जीवमंजरी, 
अनंगमंजरी, 
रसमंजरी, 
विलासमंजरी, 
रागमंजरी, 
लीलामंजरी और 
कस्तूरीमंजरी। इनके नाम-रूपादि के विषय में भिन्नता भी मिलती है। ये सखियाँ वस्तुत: राधा से अभिन्न उन्हीं की कायव्यूहरूपा हैं। राधा-कृष्ण-लीला का इन्हीं के द्वारा विस्तार होता है। कभी वे, जैसे खण्डिता दशा में, राधा का पक्ष-समर्थन करके कृष्ण का विरोध करती है। और कभी, जैसे मान की दशा में, कृष्ण का विरोध करती हैं और कभी कृष्ण के प्रति प्रवृत्ति दिखाते हुए राधा की आलोचना करती है। परन्तु उन्हें राधा से ईर्ष्या कभी नहीं होती, वे कृष्ण का संग-सुख कभी नहीं चाहतीं, क्योंकि उन्हें राधा-कृष्ण के प्रेम-मिलन में ही आत्मीय मिलन-सुख की परिपूर्णता का अनुभव हो जाता है। अत: वे राधा-कृष्ण के मिलन की चेष्टा करती रहती हैं। 

वल्लभ-सम्प्रदाय (पुष्टिमार्ग) में भी शब्दों के किंचित हेर-फेर से गोपियों के सम्बन्ध में इसी प्रकार के विचार मिलते हैं। वहाँ भी गोलोक के नित्यरास की गोपियाँ भगवान् श्रीकृष्ण के परमानन्दस्वरूप का विस्तार करने वाली, उन्हीं की सामर्थ्यशक्ति हैं। उनकी उत्पत्ति स्वयं श्रीकृष्ण ब्रह्म के आनन्दकाय से हुई है। उनके बिना ब्रह्म का परमानन्द-स्वरूप अपूर्ण है। गोपियाँ कृष्ण धर्मी की धर्म-रूपा हैं। राधा उन गोपियों में पूर्ण आनन्द की सिद्ध-शक्ति हैं, अत: वे स्वामिनी हैं। राधा और गोपियों के रूप में रस-रूप कृष्ण-ब्रह्म अपना प्रसार करके उसी प्रकार प्रसन्न होते हैं, जैसे बालक अपना प्रतिबिम्ब देखकर प्रसन्न होता है। 

अवतार-दश में परमानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण-ब्रह्म अपने सम्पूर्ण रस-परिकर-राधा, गोपी, गोप, गो, वत्स आदि- तथा लीलाधाम के साथ ब्रज में प्रकट होते हैं। अवतार-लीला की गोपियाँ के वल्लभमत में भी स्वकीया और परकीया, दो भेद किये हैं, केवल उनके नाम भिन्न हैं। एक प्रकार की गोपियाँ अनन्यपूर्वा कही गयी हैं, जो पुन: दो प्रकार की हैं- 
एक कुमारियाँ, जो कृष्ण को पति के रूप में पाने की साधना करते हुए सदैव अविवाहित रहती हैं और दूसरी वे, जिनका कृष्ण के साथ विवाह होता है। ये दोनों प्रकार की अनन्यपूर्वा गोपियाँ कृष्ण का ही वरण करती हैं। ये गोपियाँ पूर्वराग की अवस्था के बाद कुल की मर्यादा और लोक की लज्जा त्यागकर कृष्ण से मिलती हैं। अनन्यपूर्वा गोपियाँ वस्तुत: स्वकीया हैं। 

अन्यपूर्वा गोपियाँ परकीया कही जा सकती हैं, क्योंकि वे विवाहिता होती हैं और अपने लौकिक पतियों से सम्बन्ध त्यागकर जार भाव से श्रीकृष्ण को प्रेमी-रूप में प्राप्त करने की लालसा रखती हैं। लोक, वेद और कुल की मर्यादाओं का उन्हें उल्लंघन करना पड़ता है। इन दो प्रकार की गोपियों के अतिरिक्त एक सामान्या गोपियाँ और कही गयी हैं, जो निरन्तर कृष्ण के बाल रूप के प्रति यशोदा की तरह वात्सल्य स्नेह करती हैं। चैतन्यमत के स्वकीया-परकीया के अतिरिक्त तीसरे प्रकार की साधारणी वल्लभाएँ कही गयी हैं, जो कुब्जा की तरह केवल कामवासना की परितृप्ति के लिए प्रेम करती हैं। वल्लभमत की सामान्या गोपियों से वे नितान्त भिन्न हैं। वल्लभमत में वात्सल्यभाव को जो महत्ता दी गयी है, उसे देखते हुए इस भाव की गोपियों का एक भिन्न वर्ग रखना समीचीन हैं। 

पुष्टिमार्गीय भक्ति का प्रथम सोपान वात्सल्यभाव की भक्ति ही है, जिसे प्रवाही पुष्टि भक्ति कहते हैं। प्रवाही पुष्टि भक्त सामान्य गोपियाँ उच्च भक्त हैं। अनन्यपूर्वा गोपियाँ उच्चतर भक्त हैं, क्योंकि उनमें पूर्वराग की अवस्था में मर्यादा का भाव रहता है। उनकी भक्ति मर्यादा-पुष्टि भक्ति है। उच्चतम भक्ति पुष्टि-पुष्टि भक्ति होता है, जो जार भाव की होती है। अन्यपूर्वा गोपियाँ ही इसकी अधिकारिणी होती हैं। इस प्रकार वल्लभमत में भी चैतन्यमत की भाँति परकीया-भाव की ही सर्वोच्च कहत्ता है। रास-रसका सुख केवल अन्यपूर्वा और अनन्यपूर्वा गोपियों को ही मिलता है। 

श्रीमद् भागवत की सुबोधिनी टीका के रासपंचाध्यायी 'फलप्रकरण' में वल्लभाचार्य ने रास की इन दो प्रकार की गोपियों को पुन: तामस, राजस, सात्त्विक, तीन गुणों के प्रभाव से उनके मेल के अनुसार नौ और नौ, अठारह भेदों में वर्गीकृत किया है। इनके अतिरिक्त उन्नीसवीं प्रकार की गोपी गुणातीता या निर्गुणा कहलाती हैं। वल्लभाचार्य ने इन गोपियों में राधा का कोई उल्लेख नहीं किया। वल्लभ-सम्प्रदाय में राधा का माहात्म्य विट्ठलनाथ के समय में प्रतिष्ठित हुआ। यह अनुमान निराधार नहीं है कि पुष्टिमार्ग में राधा और गोपी-भाव की इतनी महत्ता बहुत कुछ गौड़ीय तथा राधावल्लभीय सम्प्रदायों के सम्पर्क का परिणाम है। गोपियों के उपर्युक्त वर्गीकरण से इसकी पुष्टि होती है। 

यद्यपि गोपियाँ कृष्ण की रस-शक्ति हैं, उनसे अभिन्न हैं, परन्तु लीला में वे भिन्न तथा भक्तों में आनन्द-भाव का अविर्भाव करने वाली रसात्मक शक्ति की प्रतीक भी हैं। राधा रस-सिद्धि की प्रतीक हैं तथा अन्य गोपियाँ गोपीस्वरूप बनने की कामना करने वाले भक्तों की प्रेमभक्ति-साधना की विविध स्थितियों की प्रतीक हैं। वल्लभ-सम्प्रदाय में चैतन्यमत की तरह गोपियों के यूथों के विवरण तो नहीं है, परन्तु राधा और चन्द्रावली को अन्य शक्ति-स्वरूपा गोपियों की स्वामिनी, सिद्धशक्ति-स्वरूपा कहा गया है। अन्य गोपियाँ इन्हीं की सखियाँ हैं यहाँ भी मुख्य आठ सखियाँ मानी गयी हैं, परनतु नामों में कुछ अन्तर है। पुष्टिमार्गी अष्टसखियाँ हैं- 
चम्पकलता, 
चन्द्रभागा, 
विशाखा, 
ललिता, 
पद्मा, 
भामा, 
विमला और 
चन्द्ररेखा। मधुरभाव के भक्त सखीरूप होते हैं।

पुराणों में विशेषरूप से 'ब्रह्मवैवर्त्त' में अष्टसखियों के नाम किंचित् परिवर्तन से इस प्रकार मिलते हैं:- 
चन्द्रावली, 
श्यामा, 
शैव्या, 
पद्या, 
राधा, 
ललिता, 
विशाखा तथा 
भद्रा। 

अष्टछाप के परम भगवदीय आठ भक्त, जो सख्य भक्ति करने के कारण गोचारण लीला के अष्टसखा कहे गये हैं, मधुरभाव सिद्ध कर लेने के कारण निकुञ्जलीला की अष्टसखी भी बताये गये हैं। इस प्रकार 
सूरदास- चम्पकलता, 
परमानन्ददास- चन्द्रभागा, 
कुम्भनदास- विशाखा, 
कृष्णदास- ललिता, 
छीतस्वामी- पद्मा, 
गोविंदस्वामी- भामा, 
चतुर्भुजदास- विमला तथा 
नन्ददास- चन्द्ररेखा का भाव सिद्ध किये हुए सखी भाव के भक्त हैं। 

अष्टछाप-कवि 

अष्टछाप-कवियों में सूरदास के काव्य में माधुर्य भक्ति का सबसे अधिक विशद और विस्तृत रूप मिलता है। उन्होंने राधा और कृष्ण को प्रकृति और पुरुष रूप में वर्णित किया है तथा अन्य गोपियों को राधा की विविध प्रेमावस्था की सखियों के रूप में। इन सभी कवियों ने राधा और गोपियों को एक ओर तो कृष्ण-ब्रह्म की आनन्दरूप-प्रसारिणी शक्ति के रूप में चिन्तित किया और दूसरी ओर दाम्पत्य या कान्ता भाव से भक्ति करने वाले अनन्य भक्तों के रूप में। सूरदास ने राधा के अतिरिक्त ललिता और चन्द्रावली का विशेष उल्लेख किया है और उन्हें राधा की परम प्रिय, घनिष्ठ सखियों के रूप में 'मान' और 'खण्डिता' के प्रकरणों में चिन्तित किया है। 'खण्उता' प्रकरणों में इन दो के अतिरिक्त सूरदास ने शीला, सुखमा, कामा, वृन्दा, कुमुदा और प्रमदा का उल्लेख किया है। गोपियों में कृष्ण-प्रेम की अधिकारिणी ये ही हैं। परन्तु इनमें से किसी का राधा से ईर्ष्याभाव नहीं है। वास्तव में ये राधा से ही नहीं, कृष्ण से भी अभिन्न हैं सूरदास ने कहा है- 

'राधिका गेह हरि-देहवासी। 
और तिय घरनि घर तनुप्रकासी ॥ 
ब्रह्म पूरन द्वितीय नहीं कोऊ। 
राधिका सबै, हरि सबै वोऊ॥ 
दीप सौं दीप जैसे उजारी। 
तैस ही ब्रह्म घर घर बिहारी॥"* 

सूरदास ने 'दानलीला' के प्रसंग में गोपियों की महिमा बताते हुए उन्हें श्रुति की ऋचाएँ बताया है। कृष्ण के सगुण परमान्दस्वरूप के देखने की श्रुतियों की इच्छा पूरी करने के लिए ब्रह्म ने जब निज धाम- नित्यवृन्दावन दिखाया,, जहाँ प्रकृति की रमणीय शोभा के बीच किशोर श्याम गोपियों के साथ क्रीड़ा करते हैं, तब श्रुतियों ने गोपीरूप पाने का वरदान माँगा। पूर्ण परमानन्द ब्रह्म ने वरदान दिया कि जब मैं भरतखण्ड के मथुरामण्डल में, जो हमारा निज धाम हैं, गोपवेश धारण करूँगा तब तुम गोपी होकर मुझसे प्रेम करोगी। इस प्रकार वेद-ऋचाओं ने गोपी बनकर हरि के साथ विहार किया। ब्रह्मा कहते हैं- 

'जो कोउ भरताभाव हृदय धरि हरि पद ध्यावै। 
नारि-पुरुष कोउ होई श्रुतिऋचा गति सो पावै॥ 
तिनकी पदरज कोउ जो वृन्दाबन भू माँह। 
पर से सोऊ गोपिका-गति पावै संशय नाहिं ॥" 

'सूर-सागर' के इस पद* पाठ में त्रिपद वामन पुराण की साक्षी दी गयी है। वास्तव में गदाधरदास द्विवेदी लिखित 'सम्प्रदाय-प्रदीप' नामक पुस्तक के द्वितीय प्रकरण के 1 से 30 श्लोकों का इस पद से शब्दश: साम्य पाया जाता है। विद्याविभाग, कांकरोली से प्रकाशित यह पुस्तक संवत् 1610 की लिखी कही गयी है। प्रश्न उठता है कि इन दोनों में मूल कौन है और अनुवाद कौन ? जो हो, पुष्टि-मार्ग में गोपियों की इस प्रकार की महिमा प्रचलित रही है। उपर्युक्त भर्ता-भाव, अर्थात् गोपी-भाव भक्ति का सर्वोच्च भाव माना गया है। 

गौडीय वैष्णव और वल्लभसम्प्रदायों में गोपी और गोपी-भाव की जो महत्ता दी गयी, उसे ही थोड़े-बहुत विवरण और अवधान सम्बन्धी अन्तरों के साथ कृष्ण-भक्ति के अन्य सम्प्रदायों में भी अपनाया गया है। इन सम्प्रदायों में राधा-वल्लभीय और सखी सम्प्रदाय विशेष उल्लेखनीय हैं इन दोनों में ही राधाकृष्ण को अद्वय मानकर उनकी सखियों को भी उन्हीं का एक अभिन्न अंग माना गया है। अत: भक्त गण गोपियों के सखी-भाव को अपनाने के लिए ही लालायित रहते हैं वे गोपियों के स्वरूप का ध्यान करते हुए उन्हीं की तरह आचरण करते हैं तथा उनके भाव को दृढ़ करने की चेष्टा करते हैं। उनकी सबसे बड़ी आकांक्षा यही होती है कि किसी प्रकार उन्हें युगल मूर्ति के सन्निकट रहकर उनकी परिचर्या करने का अवसर मिले। 

अष्टसखी 

पुराणों में राधा-कृष्ण के परितः स्थित सखियों/गोपियों के नाम क्रमशः विशाखा, शैब्या, पद्मा, भद्रा, ललिता, श्यामला, श्रीमती/धन्या व हरिप्रिया आए हैं। राधोपनिषद के उल्लेख से इन गोपियों की विभिन्न दिशाओं में स्थिति का निर्धारण होता है। राधोपनिषद में आग्नेय कोण में स्थित सखी का नाम श्रद्धा प्रकट हुआ है, जबकि पुराणों में यह नाम शैब्या है। यह मानवीय त्रुटि है या यह परिवर्तन जानबूझ कर किया गया है, यह आगे वर्णन से स्पष्ट होगा। वृन्दावन में जो राधा-कृष्ण भक्ति सम्प्रदाय विकसित हुए हैं, उनमें यह ८ नाम ललिता, विशाखा, चम्पकलता, चित्रा, तुङ्गविद्या, इन्दुलेखा, सुदेवी और रंगदेवी के रूप में प्रकट हुए हैं। पहला प्रश्न तो यह उठता है कि क्या पुराणों में प्रकट हुए आठ नामों और वृन्दावन में प्रचलित सखियों के आठ नामों में साम्य है या नहीं? और यदि साम्य है तो उनकी दिशाओं में स्थिति में भी साम्य है या नहीं? जैसा कि इस टिप्पणी में आगे वर्णन किया गया है, पुराणों और वृन्दावन की सखियों के नामों में साम्य है, लेकिन दिशाओं में स्थिति में नहीं। अभी यह ज्ञात नहीं है कि क्या सखियों की दिशाओं में स्थिति में सम्प्रदाय-सम्प्रदाय के अनुसार अन्तर आ जाता है अथवा वह एक समान रहती है? यह उल्लेख कर देना उपयुक्त होगा कि राधा की सखियों से क्या तात्पर्य हो सकता है और इन सखियों का दिशाओं के अनुसार वर्गीकरण करने की आवश्यकता क्यों पडी? सखी से तात्पर्य हमारे दैनिक जीवन के क्रिया-कलापों से, दैनिक जीवन की प्रवृत्तियों से हो सकता है। हमारी सभी प्रवृत्तियां, सभी कार्यकलाप केन्द्रस्थ सात्विक प्रकृति राधा की सेवा करें, यही सखी का उद्देश्य हो सकता है। वैदिक साहित्य में सखियों को नहीं, अपितु सखाओं को महत्त्व दिया गया है और उन्हें मरुत नाम दिया गया है। इन्द्र एक मरुत को काट कर उसे सात भागों में विभाजित करता है और फिर सात टुकडों को काट-काट कर उनको ४९ संख्या में विभाजित करता है। तब जाकर मरुत उसके सखा बनते हैं। मरुतों के सात गणों में से प्रत्येक में सात मरुत हैं। यह सात गण क्रमशः सात्त्विक, सूक्ष्म होते चले जाते हैं और इनका विकास ऊर्ध्व दिशा में होता चला जाता है। सखियों के संदर्भ में वैदिक साहित्य में बहुत कम उल्लेख है। यह काम पुराणों ने पूरा किया है। सखियों को आठ दिशाओं में विभाजित किया गया है जिससे प्रत्येक दिशा की विशिष्ट प्रकृति के अनुसार अपनी प्रवृत्तियों का विभाजन किया जा सके। यदि कोई सात्त्विक प्रकृति का पुरुष है तो उसे सखियों के चक्कर में पडने की कोई आवश्यकता नहीं है। वह सीधे राधा की, केन्द्रीय सात्त्विक प्रकृति की आराधना करेगा। 

विशाखा 

पुराणों के अनुसार राधा की ८ सखियों में विशाखा सखी का स्थान पूर्व दिशा में है जबकि ललिता सखी का पश्चिम दिशा में। ललिता कृष्ण को रच-रच कर ताम्बूल/पान प्रस्तुत करती है। ताम्बूल शब्द तबि, ष्टबि आदि धातुओं के आधार पर निर्मित है। तबि, ष्टबि धातुएं मर्दन अर्थ में प्रयुक्त होती हैं – प्राण और अपान के मर्दन से व्यान का जन्म होता है, ऐसा कहा जाता है। व्यान प्राण दक्षता उत्पन्न करता है। यह मदयुक्त अवस्था है। दूसरे शब्दों में मर्दन की व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है कि यह मर्त्य स्तर पर अमृत स्तर के मिश्रण से उत्पन्न स्थिति है। ताम्बूल लता का जन्म भी अमृत के भूमि पर क्षरण से हुआ है। अथर्ववेद ८.७.४ में ओषधियों का वर्गीकरण उनके तनों के अनुसार किया गया है। एक ओषधि स्तम्भ/स्कन्ध अर्थात् तने वाली है, दूसरी काण्ड वाली, तीसरी बिना तने की अर्थात् विशाखा, जिसके मूल से ही शाखाएं निकल रही हैं, तना है ही नहीं। यह स्कन्ध उद्देश्य-विशेष का प्रतीक हो सकता है। हो सकता है कि ताम्बूल भी उद्देश्य विशेष का प्रतीक हो। पुराण में उल्लेख आता है कि नाग-पुत्री ललिता ने उदयन को अम्लान ताम्बूल माला उदयन को अर्पित की। इन उद्देश्यों को रच-रच कर कृष्ण को अर्पित करना है। इसके विपरीत, विशाखा की स्थिति निरुद्देश्य है, सभी ओर किरणें फैल रही हैं। यह समाधि से व्युत्थान की स्थिति हो सकती है। गर्ग संहिता में विशाखायूथ की गोपियां कृष्ण विरह पर अपनी प्रतिक्रिया इस प्रकार व्यक्त करती हैं कि गोचारण के समय अनुचरों सहित जाते हुए मत्त हाथी जैसे कृष्ण अपने रवों से स्वपुर को प्रबोधित कर देते हैं(गोचारणायानुचरैर्व्रजंतं प्रबोधयंतं स्वपुरं विरावैः)। यहां गोचारण इन्द्रियों का नियन्त्रण हो सकता है। वामन पुराण में वामन के विराट रूप में विशाखा नक्षत्र की स्थिति भ्रूमध्य में कही गई है। 

अथर्ववेद १९.७.३ में विशाखा नक्षत्र के राधा बन जाने की कामना की गई है। वैदिक साहित्य में अन्यत्र विशाखा नक्षत्र नाम न लेकर राधा कहकर ही काम चला लिया गया है क्योंकि विशाखा नक्षत्र से अगला नक्षत्र अनुराधा है। 
विशाखा सखी का वर्ण : विद्युत जैसा, वस्त्रों पर तारे जडे हैं। राधा व कृष्ण के बीच दूती का कार्य करती है। 

सखी बिसाखा अति ही प्यारी। कबहुँ न होत संगते न्यारी॥ 
बहु विधि रंग बसन जो भावै। हित सौं चुनि कै लै पहिरावै॥ 
ज्यौं छाया ऐसे संग रहही। हित की बात कुँवरि सौं कहही॥ 
दामिनि सत दुति देह की, अधिक प्रिया सों हेत। 
तारा मंडल से बसन, पहिरे अति सुख देत॥ 
माधवी मालती कुञ्जरी, हरनी चपला नैन। 
गंध रेखा सुभ आनना, सौरभी कहैं मृदु बैन॥ - श्री ध्रुवदास-कृत “बयालीस लीला” से उद्धृत 

तुङ्गविद्या 

पुराणों में आग्नेयी दिशा में शैब्या गोपी की स्थिति का उल्लेख है जबकि राधोपनिषद में श्रद्धा गोपी का। अथर्ववेद १५.२.८ में आग्नेय कोण में श्रद्धा पुंश्चली की स्थिति का उल्लेख है जिसका विज्ञान मित्र है, भूत और भविष्य परिष्कन्द हैं। पुंश्चली शब्द संकेत देता है कि श्रद्धा अस्थिर है। इस कथन को पुराणों में रानी शैब्या की कथाओं के आधार पर समझा जा सकता है। एक कथा में शैब्या राजा सगर की पत्नी बनकर असमञ्जस पुत्र को जन्म देती है। यह असमञ्जस वही श्रद्धा और अश्रद्धा के बीच की स्थिति है। अन्य कथा में शैब्या राजा शतधनु की पत्नी है। राजा शतधनु का किसी पाखण्डी से सम्पर्क हो गया जिसके परिणामस्वरूप राजा को मृत्यु-पश्चात् श्वान, सृगाल आदि की योनियां प्राप्त होती रही और प्रत्येक बार शैब्या उन योनियों से अपने पूर्व पति का उद्धार करती रही। राजा द्वारा विभिन्न योनियां प्राप्त करना यम की ओर से एक नियत कर्म था, लेकिन शैब्या ने इतना कर दिया कि एक योनि में रहने का समय केवल एक दिन रह गया। इस प्रकार शैब्या ने काल संक्षेप कर दिया। यह कथा इंगित करती है कि अपने लक्ष्य की प्राप्ति में मनुष्य सबसे पहले श्रद्धा के आधार पर ही अग्रसर होता है और यदि उसमें कोई अज्ञानी व्यक्ति अश्रद्धा, संशय उत्पन्न कर देता है तो यह शुभ संकेत नहीं है। एक अन्य कथा में शैब्या अपने कुष्ठी पति को ढो रही है जिसके पदाघात से शूलारोपित माण्डव्य ऋषि को कष्ट पहुंच जाता है और वह सूर्योदय होने से पहले कुष्ठी पति को मरने का शाप देते हैं। शैब्या सूर्योदय होने का ही निषेध कर देती है। शैब्या का कुष्ठी पति होना डा. फतहसिंह के अनुसार यह संकेत देता है कि आत्मा की ज्योति का जीवन में अवतरण नहीं हुआ है। जैसे ही अवतरण होगा, सूर्योदय होगा, कुष्ठ समाप्त हो जाएगा। वृन्दावन में शैब्या/श्रद्धा को तुङ्गविद्या नाम दिया गया है, ऐसा अनुमान है। तुंगविद्या और शैब्या की प्रकृतियों में साम्य का अनुमान पद्म पुराण की इस कथा से लगाया जा सकता है कि आत्मदेव और धुंधली का आख्यान तुङ्गभद्रा नदी के तट पर घटित हुआ था। इस कथा में धुंधली वही धुंधली बुद्धि है जिसे स्पष्ट दिशा निर्देश प्राप्त नहीं हो रहे हैं। तुङ्गविद्या गोपी १८ वेदविद्याओं की ज्ञाता है, गान विद्या/नाट्य शास्त्र में कुशल है, रस शास्त्र में कुशल है। उसके गान की प्रकृति को मार्गी संगीत कहा गया है। मार्गी का एक अर्थ तो यह हो सकता है कि इससे जीवन में मार्ग का निर्धारण किया जा सकता है। दूसरा अर्थ यह हो सकता है कि इसके द्वारा हमें मार्जन करना है, लोकभाषा में मांजना है। तीसरा अर्थ यह हो सकता है कि यह संगीत मृग की अवस्था है। यह मृग इस संसार में अपने लिए भोग आदि की खोज करता रहता है। तुङ्ग शिखर को कहते हैं। ऐसा हो सकता है कि तुङ्गविद्या अपने संशय को १८ वेदविद्याओं को जानने के पश्चात् नष्ट करती हो। तुङ्गविद्या को यदि तुञ्जविद्या कहा जाए तो वेदों के अनुसार इसकी व्याख्या करना संभव हो जाता है। वैदिक निघण्टु में तुञ्ज शब्द का वर्गीकरण वज्र नामों के अन्तर्गत किया गया है। इसका अर्थ होगा कि अपने निश्चय को वज्र जैसा दृढ संकल्प बनाना है जिसमें संशय का कोई स्थान न हो। तुञ्जति शब्द का वर्गीकरण दानकर्मा शब्दों के अन्तर्गत किया गया है। यदि श्रीसूक्त से तुलना की जाए तो श्रीसूक्त में आग्नेय कोण में जिस ऋचा का विनियोग है, वह है – उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह। प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥ इसका शब्दार्थ है कि जो देवसखा है, वह मेरे पास आए। तथा कीर्ति मणि के साथ आए। मैंने इस राष्ट्र में जन्म ले लिया है। कीर्ति मुझे ऋद्धि प्रदान करे। इस ऋचा में देवसख आत्मा का वह रूप हो सकता है जो परमात्मा से निर्देश लेने लगा है, उसका सखा बन गया है। तब वह कल्याणकारी रूप में सम्पूर्ण देह में, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में, राष्ट्र में अपना विस्तार कर सकता है। क्या कीर्ति का पूर्व रूप धुंधली बुद्धि है, यह अन्वेषणीय है। पुराणों में तो सुचन्द्र व कलावती का अवतार वृषभानु व कीर्ति कहे गए हैं जो राधा को जन्म देते हैं। 

तुङ्ग विद्या सब विद्या माही। अति प्रवीन नीके अवगाही॥ 
जहां लगि बाजे सबै बजावै। रागरागिनी प्रगट दिखावै॥ 
गुन की अवधि कहत नहिं आवै। छिन-छिन लाडिली लाल लडावै॥ 
गौर बरन छबि हरन मन, पंडुर बसन अनूप। 
कैसे बरन्यो जात है, यह रसना करि रूप॥ 
मंजु मेधा अरु मेधिका, तन मध्या मृदु बैंन। 
गुनचूडा बारूंगदा, मधुरा मधुमय ऐंन॥ 
मधु अस्पन्दा अति सुखद, मधुरेच्छना प्रवीन। 
निसि दिन तौ ये सब सखी, रहत प्रेम रस लीन॥ - “बयालीस लीला” से साभार 

चित्रा 

पुराणों में दक्षिण दिशा में पद्मा गोपी की स्थिति कही गई है जबकि वृन्दावन परम्परा में इस दिशा में चित्रा सखी को स्थान दिया गया है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में कहा गया है कि आकाश में जैसे नक्षत्र हैं, वैसे ही इस पृथिवी पर चित्र-विचित्र रूप हैं। कोई अच्छा रूप है, कोई खराब रूप है। आवश्यकता इस बात की है इन चित्र रूपों को विकसित करके इन्हें पुनः आकाश के नक्षत्रों का रूप दिया जाए। दक्षिण दिशा यम की, पितरों की और दक्षता प्राप्त करने की दिशा है। पहले हम पुराणों के माध्यम से यह समझने का प्रयत्न करते हैं कि दक्षिण दिशा में पद्मा सखी के नामकरण से क्या तात्पर्य सिद्ध होता है? पुराणों में सार्वत्रिक रूप से एक कथा में पद्मा को राजा अनरण्य की कन्या कहा गया है। हमारी आत्मा अरण्य है, जंगल है जिससे ऊपर की स्थिति अन्-अरण्य की, परमात्मा की है(लक्ष्मीनारायण संहिता)। इस अनरण्य को पद्म में स्थित अङ्गुष्ठ पुरुष की बहुत चाह है, लेकिन वह केवल कन्या रूप में पद्मा को, प्रकृति को ही प्राप्त कर पाता है। फिर इस पद्मा को पत्नी रूप में पाने वाला पैप्पलाद बनता है। पैप्पलाद ऋषि वह है जिसका पालन पिप्पलों के भक्षण से, इस पृथिवी के भोगों के सेवन द्वारा हुआ है। इस पद्मा को धर्म भी पत्नी रूप में प्राप्त करना चाहता है, लेकिन उसे पद्मा के शाप से चार युगों में चार पाद वाला बनना पडा। पद्मा शब्द की निरुक्ति इसी आधार पर की जा सकती है कि जगत में प्राणियों को पाद प्रदान करे, उनमें चलने की शक्ति दे, जैसे सूर्योदय पर सारे प्राणी चलने लगते हैं। लक्ष्मीनारायण संहिता में उल्लेख आता है कि पद्मा गोपी कृष्ण के पादयुगल में अलक्तक लगाती है। दूसरी ओर पद्मा गोपी द्वारा कृष्ण को भालतिलक बिन्दी लगाने का भी उल्लेख है। इसकी व्याख्या कैसे की जा सकती है, यह भविष्य में अपेक्षित है। चित्रा का चित्रण पुराणों में यम-पत्नी के रूप में किया गया है। एक वेश्या के रूप में भी चित्रा का चित्रण किया गया है जो अपने किन्हीं सत्कार्यों के कारण अगले जन्म में दिव्या देवी बनती है। पुराणों में पिङ्गला को भी वेश्या कहा जाता है जो सदा इस आशा में जीती है कि उसे उसका प्रियतम मिलेगा। जब वह आशा का त्याग कर देती है, तभी उसे चैन मिलता है। श्रीसूक्त में दक्षिण दिशा में जिस ऋचा का विनियोग है, वह है – 

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्। पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम्॥ 
अर्थात् 
मैं उस श्री का आह्वान करता हूं जो कां, कामनाओं की पूर्ति करती है, सोस्मिता अर्थात् मुस्कराने वाली है, जिसके चारों ओर हिरण्य का घेरा है, जो आर्द्रा है, करुणा से आर्द्र है, ज्वलन्ती है, पापों को जला डालती है, तृप्त है, पिङ्गला वेश्या की तरह अतृप्त नहीं है, तृप्त करने वाली है, इत्यादि। 

चित्रा सखी दुहुँनि मन भावै। जल सुगंध लै आनि पिवावै॥ 
जहां लगि रस पीवे के आही। मेलि सुगंध बनावै ताही॥ 
जेहि छिन जैसी रुचि पहिचानै। तब ही आनि करावत पानै॥ 
कुंकुम कौसौ बरन तन, कनक बसन परिधान। 
रूप चतुरई कहा कहौं, नाहिन कोऊ समान॥ 
सखी रसालिका तिलकनी, अरु सुगंधिका नाम। 
सौर सैन अरु नागरी, रामिलका अभिराम॥ 
नागबेंनिका नागरी, परी सबै सुख रंग। 
हित सौं ये सेवा करैं, श्री चित्रा के संग॥ - श्री ध्रुवदास-कृत बयालीस लीला, पृष्ठ १४९ 

इन्दुलेखा 

नैर्ऋत कोण में भद्रा गोपी की स्थिति कही गई है। भद्र से तात्पर्य है कि हमारे जीवन में जो भी घटना रौद्रता उत्पन्न करती है, जैसे भूख, प्यास आदि, उनको भद्र स्थिति में रूपान्तरित करना है(क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठां अलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् – श्रीसूक्त)। अथर्ववेद १५.२.१६ में नैर्ऋत दिशा में उषा पुंश्चली की स्थिति कही गई है जिसका विज्ञान मन्त्र कहा गया है और अमावास्या व पौर्णमासी परिष्कन्द कहे गए हैं। यह संकेत देता है कि भूख, प्यास आदि जितने अग्नि से उत्पन्न उपद्रव हैं, उनका विकास उषा तक होना चाहिए, क्षुधा का प्रभाव सिर तक होना चाहिए(उषा वै अश्वस्य मेध्यस्य शिरः - शतपथ ब्राह्मण), तभी वह भद्र बन सकते हैं। पुराणों में उषा को अनिरुद्ध की पत्नी कहा गया है। यह कथा उषा को समझने की कुंजी है। जो भी कुछ निरुद्ध है – स्वप्न, शकुन इत्यादि, वह सब निर्ऋति के अन्तर्गत आता है। जब वह अनिरुद्ध बन जाते हैं तो वह उषा के अन्तर्गत आते हैं। निर्ऋति का अस्तित्व होने पर वह शकुन मात्र रहते हैं, उषा का अस्तित्व होने पर वह मन्त्र बन जाते हैं। और अमावास्या व पौर्णमासी परिष्कन्द कहने से यह संकेत दे दिया गया है कि उषा केवल सूर्योदय तक ही सीमित नहीं रहनी चाहिए, अपितु उसका विस्तार चन्द्रमा तक होना चाहिए। अनुमान है कि भद्रा गोपी वृन्दावन की इन्दुरेखा/इन्दुलेखा गोपी के तुल्य है। इन्दुलेखा गोपी नागवशीकरण विद्या की ज्ञाता है और उसे नागों को वश में करने वाले मन्त्रों पर सिद्धि प्राप्त है। वह सामुद्रिक/देहलक्षण शास्त्र की और रत्न विज्ञान की ज्ञाता है तथा राधा-कृष्ण को कण्ठ आभूषण प्रस्तुत करती है। उसकी मुख्य सेवा चंवर डुलाना है। वह राधा और कृष्ण के बीच प्रेम संदेशों का आदान-प्रदान करती है जिसे संभवतः कोक विद्या नाम दिया गया है। नैर्ऋत दिशा अवचेतन मन की दिशा है। हो सकता है कि अवचेतन मन में बसे संस्कारों को नाग नाम दे दिया गया हो जिनको इन्दुलेखा मन्त्र द्वारा वश में करना जानती है। जब संस्कार अवचेतन से बाहर निकल कर प्रकट हो जाएंगे तो वह मन्त्र कहलाएंगे। 

इन्दुलेखा अति चतुर सयानी। हित की रासि दुहुंन मनमानी॥ 
कोक कला घातन सब जानै। काम कहानी सरस बखानै॥ 
बसी करन निज प्रेम के मंत्रा। मोहन विधि के जानत जंत्रा॥ 
छिनछिन ते सब पियहि सिखावै। तातें अधिक प्रिया मन भावै॥ 
देह प्रभा हरताल रंग, बसन दाडिमी फूल। 
अधिकारिन सब कोस की, नाहिन कोऊ सम तूल॥ 
चित्रलेखा अरु मोदिनी, मन्दालसा प्रवीन। 
भद्रतुङ्गा अरु रसतुङ्गा, गान कला रस लीन॥ 
सोभित सखी सुमंगला, चित्रांगी रस दैंन। 
ये तौ रहैं सब बात में, सावधान दिन रैंन॥ 

श्री ध्रुवदास जी के उपरोक्त कथन में कोक कला की व्याख्या कुक – आदाने धातु के आधार पर तथा कोकिल शब्द के आधार पर की जा सकती है। जो कुछ कहीं सुनाई पड गया है, शकुन के रूप में प्रकट हुआ है, उसको चेतना के बाह्यतम स्तर पर लाना है, अपने जीवन में उतारना है, यह कोक का अर्थ हो सकता है जो नैर्ऋत दिशा के लक्षणों से मेल खाता है। 

ललिता 

पुराणों में ललिता गोपी राधा-कृष्ण के परितः विद्यमान ८ गोपियों में से एक है। ब्रह्माण्ड पुराण में ललिता द्वारा भण्डासुर के वध की कथा का विस्तार से वर्णन है। भण्डासुर की उत्पत्ति शिव द्वारा कामदेव को भस्म करने के पश्चात् कामदेव की भस्म से हुई है। चूंकि शिव में उग्रता विद्यमान थी, अतः भण्डासुर में भी उग्रता विद्यमान है। भण्डासुर के क्या अर्थ हो सकते हैं, इस संदर्भ में भडि धातु कुत्सा/निन्दा अर्थ में, परिभाषण/विकृत हास्य अर्थ में और कल्याण/भण्डार अर्थ में प्रयुक्त होती है। लोक में धान्य को भूनने के उपकरण को भाड कहते हैं। भण्डासुर की पुरी का नाम शून्यक पुरी है। पुराणों में ललिता गोपी का न्यास पश्चिम दिशा में किया जाता है। पश्चिम दिशा पाप नाश की, श्मशान की दिशा है। शिव ने भी कामदेव को भस्म कर दिया। लगता है पुराणों में इसे भण्डासुर की शून्यक पुरी नाम दिया गया है। लेकिन शून्य स्थिति पर्याप्त नहीं है। इस शून्य में रस उत्पन्न होना चाहिए। यह कार्य ललिता देवी का है। स्कन्द पुराण में धृतराष्ट्र नाग की पुत्री ललिता उदयन को घोषवती वीणा व अम्लान ताम्बूल स्रज भेंट करती है। उदयन पूर्व दिशा की, उदय की स्थिति हो सकती है। वीणा संगीत का, रस का परिचायक हो सकती है। राधावल्लभ सम्प्रदाय में श्री ध्रुवदास जी ने अपनी पुस्तक “बयालीस लीला” में ललिता के विषय में लिखा है कि यह रुचि उपजाती है, रच-रच कर पान/ताम्बूल खिलाती है – 

ललिता परम चतुर सब बातन। जानत है निज नेह की घातन। पानन बीरी रुचिर बनावै। रुचि लै रचि रचि रुचि सौं ख्वावै॥ मुख ते बचन सोई तो काढै। जाते दुहुं में अति रुचि बाढै॥ 
गोरोचन सम तन प्रभा, अद्भुत कही न जाइ। 
मोर पिच्छकी भांति के, पहिरे बसन बनाइ॥ 

रतन प्रभा अरु रति कला, सुभा निपुन सब अंग। 
कलहंसी रु कलापनी, भद्र सौरभा संग॥ 
मनमथ मोदा मोद सौं, सुमुखी है सुख रास। 
निसि दिन ये आठौ सखी, रहैं ललिता के पास॥ 

– श्री ध्रुवदास-कृत बयालीस लीला के अन्तर्गत दस मुक्तावली लीला, प्रकाशक – बाबा तुलसीदास, गोपाल भवन, दुसायत वृन्दावन, विक्रम संवत् २०२८, पृष्ठ १४८)। इस प्रकार ललिता देवी के साथ ताम्बूल का कोई अभिन्न सम्बन्ध है। ताम्बूल के विषय में कहा गया है कि अमृत के पृथिवी पर क्षरण से ताम्बूल की उत्पत्ति हुई है। ताम्बूल शब्द की निरुक्ति तबि, ष्टबि इत्यादि धातुओं के आधार पर की जा सकती है जिनका अर्थ मर्दने किया गया है। यह मर्दन प्राण और अपान वायुओं के बीच हो सकता है जिससे व्यान प्राण की उत्पत्ति संभव है। व्यान प्राण से दक्षता उत्पन्न होती है। स्वयं ललिता सखी की स्थिति पश्चिम दिशा में है जो अपान का पुर कहा जाता है। स्तम्भन का लालन करने के संदर्भ में भी ताम्बूल का अर्थ हो सकता है। यह स्तम्भ ओषधि-वनस्पतियों का स्कन्ध हो सकता है। और अध्यात्म में यह उद्देश्यों का प्रतीक हो सकता है। कुछ ओषधियां ऐसी होती है जो स्कन्ध से युक्त होती हैं। कुछ ऐसी होती हैं जो स्कन्ध से रहित होती हैं। ऐसी ओषधियों का प्रतीक विशाखा है – जिसके मूल से ही शाखाएं निकलने लगती हैं। 

पुराणों में ललिता देवी का उद्भव वेदानुसार कहा गया है। वेदों में प्रतीत होता है कि रर शब्द ललिता का परिचायक है। ललिता को ररिता कह सकते हैं। रर शब्द की मूल धातु क्या है, यह ज्ञात नहीं हो सका है। हो सकता है कि रर का मूल ऋ हो। ऋग्वेद के सायण भाष्य में रर शब्द का अर्थ दान किया गया है। ऋग्वेद ३,३२.२, ३.३५.१ व ५.४३.३ में ररिम मदाय शब्द प्रकट हुए हैं, अर्थात् मद उत्पन्न करने के लिए सोम इत्यादि का ररण किया जा रहा है। 

ललिता सखी का वर्ण – पीला चमकदार, वस्त्र : मयूर पिच्छ जैसे वर्ण वाले, राधा व कृष्ण के झगडों के बीच सुलह कराने वाली। 

रङ्गदेवी 

वायव्य दिशा में पुराणों में श्यामला गोपी की स्थिति कही गई है। पुराणों में श्यामला का नाम कलि-भार्या, यम-भार्या आदि के रूप में आता है। श्यामला का अवतरण अनिरुद्ध-भार्या उषा के रूप में तथा देवकी, द्रौपदी, रोहिणी आदि के रूप में हुआ है। वृन्दावन में इस दिशा में रङ्गदेवी गोपी को स्थान दिया गया है, ऐसा अनुमान है। पुराणों के श्यामला नाम और वृन्दावन के रङ्गदेवी नाम में कोई अन्तर नहीं है। श्यामला का अर्थ है श्याम वर्ण का लालन करने वाली, उसमें रंग देने वाली। रङ्गदेवी गोपी की सेवा राधा-कृष्ण को चन्दन अर्पित करना है। वह सुगन्ध की ज्ञाता है। वह मन्त्र द्वारा कृष्ण को आकृष्ट कर सकती है। 

रंग देवी अति रंग बढावै। नख सिख लौं भूषन पहिरावै॥ 
भांति भांति के भूषन जेते। सावधान ह्वै राखत तेते॥ 
कमल केसरी आभा तन की। बडी सक्ति है चित्र लिखिन की॥ 
तन पर सारी फबि रही, जपा पुहुप के रंग। 
ठाढी सब अभरन लिये, जिनके प्रेम अभंग॥ 
कलकंठी अरु ससि कला, कमला अति ही अनूप। 
मधुरिंदा अरु सुन्दरी, कंदर्पा जु सरूप॥ 
प्रेम मंजरी सो कहै, कोमलता गुन गाथ। 
एतो सब रस में पगी, रंग देवी के साथ॥ 

अथर्ववेद में इस दिशा में इरा पुंश्चली की स्थिति कही गई है जिसका विज्ञान “हस” है। अह और रात्रि परिष्कन्द हैं। इरा से तात्पर्य होता है पृथिवी पर उत्पन्न होने वाली ओषधि-वनस्पतियों से। हस्ती इस इरा का विशेषज्ञ माना जाता है, अतः उसे ऐरावत कहते हैं। पुराणों में तो इरा हस्तियों की माता है। वेदों में इरा के अन्य रूप इळा और इला हैं। सोमयाग में इळा के प्रतीक रूप में दक्षिण भारतीय इडली व्यञ्जन बनाया जाता है जिसका सेवन यज्ञ के सबसे अन्त में किया जा सकता है। कहा गया है कि इळा पाकयज्ञिया है, अर्थात् उसको यज्ञ के द्वारा पकाना है। पकने के पश्चात् ही उसका सेवन किया जा सकता है। इरा के विज्ञान के रूप में “हस” शब्द का उल्लेख है। सामवेद के गायन में दो शब्द आते हैं – अस और हस। संभवतः अस अन्तर्मुखी स्थिति है और हस बहिर्मुखी। अथवा हस हंस से, नीर-क्षीर विवेक से सम्बन्धित हो सकता है। लेकिन हस के संदर्भ में यह तर्क संतोषजनक नहीं हैं। संभावना यह है कि हस का परोक्ष रूप “घस” है। घस शब्द का प्रयोग खाने के लिए होता है। इसी धातु से घास बना है। यदि वेद में इरा/इळा के भक्षण का निषेध है तो फिर उसका विज्ञान यही हो सकता है कि उसका भक्षण किस प्रकार किया जाए। भौतिक पृथिवी की जो इरा है, उसका सेवन हम अपने भोजन के रूप में कर ही रहे हैं। लेकिन वेद का संदेश है कि पहले उसको पाकयज्ञिया बनाओ, तब भक्षण करना। इ़डा को पाकयज्ञिया बनाने से क्या तात्पर्य हो सकता है, इसको इस तथ्य से समझ सकते हैं कि वायव्य दिशा की विशेषता क्या है। जैसा कि वायु शब्द की टिप्पणी में स्पष्ट किया जा चुका है, वायु एक ऐसी स्थिति है जहां जड पदार्थ के कारण गुरुत्वाकर्षण लगभग समाप्त हो जाता है। यही कारण है कि वायु का प्रवाह मुक्त रूप से होता रहता है। यदि गुरुत्वाकर्षण विद्यमान रहता है तो वनस्पति जगत गुरुत्वाकर्षण की विपरीत दिशा में वृद्धि करने के लिए प्रतिक्रिया काष्ठ का निर्माण करता है और इस कार्य में ही उसकी अधिकांश ऊर्जा का व्यय हो जाता है। ऊर्जा की चरम परिणति – पयः को सुरक्षित रखने के लिए यह आवश्यक है कि उसे गुरुत्वाकर्षण से बचाया जाए। यही कारण है कि वनस्पतियां अपने बीज के चारों ओर काष्ठ का आवरण बनाती हैं जो प्रतिक्रिया काष्ठ का ही रूप है। इस आधार पर यह विचार किया जा सकता है कि जब वनस्पति जगत को गुरुत्वाकर्षण शक्ति जैसी किसी शक्ति का सामना करना नहीं पडेगा तो उसके पयः का और बीज का स्वरूप क्या होगा। वही इरा पाकयज्ञिया कहलाने योग्य होगी। 

श्रीसूक्त में इस दिशा में पृथिवी की गन्ध को प्रमुखता दी गई है(गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्। ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्॥)। इरा, पृथिवी की गन्ध आदि कथन यह संकेत करते हैं कि किसी प्रकार से जड भूतों से सूक्ष्म भूत प्रकट करने हैं, जड से चेतन भूत उत्पन्न करने हैं। वही पृथिवी आदि तत्त्वों की गन्ध है। करीषिणी शब्द के संदर्भ में, करीष सूखे गोबर को कहते हैं जिसे जलाने के काम में लिया जाता है। विष्णुधर्मोत्तर पुराण में करीषिणी को घर्म/धर्म की पत्नी कहा गया है। यदि करीषिणी को धर्म के बदले घर्म की पत्नी माना जाए तो अधिक उपयुक्त प्रतीत होता है। घर्म शरीर के परितः प्रकट हुई गर्मी को कहते हैं। महापुरुषों के चित्रों के मुख के परितः एक आभामण्डल दिखाया जाता है। वह भी घर्म का रूप है। इस घर्म का मूल करीषिणी को कहा गया है। जब वायव्य दिशा में श्यामला गोपी या रङ्गदेवी गोपी की स्थिति कही जाती है तो साधना के स्तर पर उससे यही तात्पर्य निकाला जा सकता है कि अब साधक की देह का आभामण्डल श्याम, काला नहीं रह गया है, अब वह रङ्ग वाला है। यदि भौतिक पृथिवी के लिए उसकी ओषधि-वनस्पतियां इरा हैं तो साधक की पृथिवी के लिए उसका आभामण्डल इरा है। 

चम्पकलता 

पुराणों में उत्तर दिशा में धन्या/श्रीमती सखी की स्थिति कही गई है जबकि वृन्दावन की परम्परा में अनुमान है कि उत्तर दिशा में चम्पकलता का स्थिति है। अथर्ववेद १५.२.२६ में उत्तर दिशा में सोम व सप्तर्षियों की स्थिति का उल्लेख है। जब पुराणों में उत्तर दिशा में धन्या सखी की स्थिति कही जाती है तो धन्या से तात्पर्य है वह प्रकृति जिसे ऋणात्मक से धनात्मक बनाना सम्भव है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार तो सारी प्रकृति ऋणात्मकता की ओर ही अग्रसर हो रही है, उसे धनात्मकता की ओर ले जाने का कोई उपाय नहीं है। लेकिन वैदिक व पौराणिक साहित्य धनात्मकता की ओर अग्रसर होने की संभावना प्रस्तुत कर रहा है। हरिवंश पुराण २.११० में आख्यान आता है कि नारद जी सबसे पहले कूर्म को कहते हैं कि तू धन्य है। कूर्म कहता है कि धन्य तो गंगा है जिसमें मेरे जैसे अगणित प्राणी हैं। गंगा कहती है कि धन्य तो समुद्र है जिसमें मेरे जैसी कितनी नदियां समा जाती हैं। समुद्र कहता है कि धन्य तो पृथिवी है जिस पर मैं स्थित हूं और न जाने कितने जीव स्थित हैं। पृथिवी ने कहा कि पर्वत धन्य हैं जो काञ्चन और रत्नों को धारण करते हैं। पर्वतों ने कहा कि प्रजापति धन्य हैं। प्रजापति ने कहा कि वेद धन्य हैं। वेदों ने कहा कि यज्ञ धन्य हैं जो हमें धारण करते हैं। यज्ञों ने कहा कि विष्णु धन्य हैं। विष्णु ने कहा कि मैं दक्षिणाओं सहित धन्य हूं। विष्णु द्वारा धन्यता में दक्षिणा को जोडना यह संकेत देता है कि दक्षता प्राप्ति धन्यता के लिए आवश्यक है और दक्षता प्राप्ति की दिशा उत्तर दिशा नहीं, अपितु दक्षिण दिशा है। अतः उत्तर और दक्षिण दोनों दिशाएं मिलकर तब धन्यता की ओर ले जाएंगी। सोमयाग में भी ऐसा होता है कि सामान्य रूप से जो कार्य दक्षिण दिशा में किया जाता है, साधना की उच्चतर स्थिति में वह उत्तर दिशा में स्थान्तरित कर दिया जाता है(आग्नीध्र ऋत्विज)। पुराणों में धन्या पितरों की कन्या है जो तप से सीरध्वज जनक की पत्नी बनकर सीता को पुत्री रूप में प्राप्त करती है। इतनी सूचना हमें धन्या शब्द से प्राप्त हो जाती है। यदि वृन्दावन की चम्पकलता सखी पुराणों की धन्या सखी के तुल्य है तो चम्पक शब्द से हमें और सूचनाएं प्राप्त होनी चाहिएं। पुराणों में अङ्ग देश व चम्पा नगरी पर्यायवाची शब्द हैं। महाभारत वनपर्व ११३ तथा वाल्मीकि रामायण में चम्पा नगरी के राजा लोमपाद का आख्यान है जिनके राज्य में वर्षा नहीं हो रही थी। वर्षा कराने के लिए उन्होंने तपस्वी ऋष्यशृङ्ग को अपने राज्य में आकृष्ट किया और फिर अपनी पुत्री शान्ता का विवाह ऋष्यशृङ्ग से कर दिया। यहां शान्ता का पूर्व रूप क्षान्ता है। चम्पक या चम्पा शब्द चपि धातु से बना है और चपि धातु का अर्थ क्षान्त किया गया है। जब वर्षा नहीं होगी तो क्षान्त स्थिति, क्लान्त स्थिति, घबराने की स्थिति ही उत्पन्न होगी। जब ऋष्यशृङ्ग रूपी विज्ञानमय कोश की शक्ति से सम्पर्क स्थापित हो जाएगा तो क्षान्त स्थिति शान्त स्थिति में रूपान्तरित हो जाएगी। शब्दकल्पद्रुम शब्दकोश में चम्पक शब्द के संदर्भ में सांख्यशास्त्र की सिद्धि विशेष के रूप में चम्पक को उद्धृत किया गया है और कहा गया है कि न्याय द्वारा स्वयं परीक्षित अर्थ भी तब तक श्रद्धा योग्य नहीं बनता है जब तक गुरुशिष्य ब्रह्मचारियों सहित संवाद न हो जाए। अतः सुहृदों के साथ, गुरुशिष्य व ब्रह्मचारियों के साथ संवादों की प्राप्ति चतुर्थी सिद्धि चम्पक है। डा. फतहसिंह कहा करते थे कि गुरु विज्ञानमय कोश है, शिष्य मनोमय कोश है। महाभारत आदि में उल्लेख आता है कि चम्पा नगरी के राजा अधिरथ सूत ने गङ्गा से एक मञ्जूषा प्राप्त की जिसमें सूर्य का अंश कर्ण था। अधिरथ सूत व उसकी पत्नी राधा ने कर्ण को पुत्र रूप में पाला और कर्ण चम्पा नगरी का राजा बना। इस आख्यान में यह उल्लेखनीय है कि कर्ण आदित्य का अंश है जबकि उत्तर दिशा सोम की दिशा है। अन्य आख्यान में राजा वेन अङ्ग देश का राजा था। ऋषियों ने वेन को मार कर उसकी देह का मन्थन करके विष्णु के अवतार पृथु को उत्पन्न किया। वेन शब्द की टिप्पणी में वेन को वेर्न, पक्षी के सदृश कहा गया है। वेन से उत्पन्न पृथु सोम का, विष्णु का अंश है। गर्ग संहिता में एक कथा आती है कि अनिरुद्ध ने चम्पा नगरी पर विजय प्राप्त करने के लिए आक्रमण किया तो चम्पा नगरी की सेना ने अनिरुद्ध की सेना पर शतघ्नियों द्वारा आक्रमण किया जिससे अनिरुद्ध की सेना जलने लगी। तब अनिरुद्ध ने पर्जन्यास्त्र छोडा जिससे शतघ्नियों की अग्नि शान्त हो गई। यह कथा भी संकेत देती है कि चम्पा नगरी में अग्नि या आदित्य रूपी क्षान्ति विद्यमान है। श्रीसूक्त में जिस ऋचा का उत्तर दिशा में विनियोग किया गया है, वह है – आदित्यवर्णे तपसोऽधि जाता वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः। तस्य फलानि तपसा नुदन्तु मायान्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः। इस ऋचा में चन्द्रमा का तो प्रत्यक्ष रूप से कोई उल्लेख नहीं है, अपितु आदित्य का है। ऐसा क्यों है, यह अन्वेषणीय है। बिल्व फल अस्थियों में मज्जा का प्रतीक हो सकता है। बिल्व फल की तुलना कर्ण की मञ्जूषा से भी की जा सकती है। और जैसा कि ऊपर के कथन संकेत देते हैं, बिल्व फल विज्ञानमय कोश का प्रतीक भी हो सकता है। वृन्दावन के साहित्य में चम्पकलता सखी को व्यञ्जन बनाने में निपुण, पात्र निर्माण में निपुण, तर्क द्वारा राधा के विरोधियों को तुष्ट करने वाली कहा गया है। वैदिक दृष्टिकोण से संभवतः अन्न तो दक्षिण दिशा में प्राप्त होता है और अन्नाद्य, अन्नों में सर्वश्रेष्ठ घृत, दधि, मधु आदि उत्तर दिशा में प्राप्त होते हैं। अन्न पाक का कार्य व्यान वायु द्वारा किया जाता है। सोमयाग में अन्नपाक का कार्य दक्षिणाग्नि पर किया जाता है। चम्पकलता सखी के पिता का नाम चण्डाक्ष कहा गया है। यह चन्द्राक्ष का पूर्व रूप हो सकता है। पुराणों में चम्पा नगरी की स्थिति पूर्व दिशा में भी कही गई है(अङ्ग देश के रूप में) और पश्चिम में भी(गर्ग संहिता में सिन्धु प्रान्त में स्थित चम्पा नगरी का उल्लेख आता है जिसका राजा विमल है जो अपनी कन्याओं को श्रीकृष्ण को अर्पित कर देता है)। उत्तर व दक्षिण दिशाओं को त्याग कर चम्पा की स्थिति पूर्व व पश्चिम में क्यों कही गई है, यह अन्वेषणीय है। 

चंपकलता चतुर सब जानै। बहुत भांति के बिंजन बानै॥ 
जेहिजेहि छिन जैसी रुचि पावै। तैसे बिंजन तुरत बनावै॥ 
चंपकलता चम्पक बरन, उपमा कौं रह्यौ जोहि। 
नीलाम्बर दियौ लाडिली, तन पर रह्यौ अति सोहि॥ 
कुरंगा छीमन कुंडला, चन्द्रिका अति सुख दैन। 
सखी सुचरिता मंडनी, चन्द्रलता रति ऐंन॥ 
राजत सखी सुमन्दिरा, कटि काछनी समेत। 
बिबिध भांति बिंजन करै, नवल जुगल के हेत॥ 

सुदेवी 

ईशान कोण में पुराणों में हरिप्रिया गोपी की स्थिति का उल्लेख है। हरि स्थिति वह होती है जहां सारे पाप नष्ट हो चुके होते हैं, वृत्र मर चुका होता है। प्रिय स्थिति कौन सी होती है, इस विषय में ब्राह्मण ग्रन्थों में उल्लेख आते हैं कि चक्षु, प्राण, श्रोत्र, नासिका आदि देह के प्रत्येक अंग से प्रिय बनना है। अथर्ववेद में इस दिशा में विद्युत पुंश्चली की स्थिति का उल्लेख है जिसका विज्ञान स्तनयित्नु है और श्रुत व विश्रुत परिष्कन्द हैं। वृन्दावन में हरिप्रिया गोपी के तुल्य सुदेवी गोपी हो सकती है जिसके विषय में प्रत्यक्ष रूप से उल्लेख किया गया है कि वह हरिप्रिया है। सुदेवी गोपी की सेवा राधा के केश विन्यास करना, आंखों में अंजन लगाना, गात्र मर्दन करना आदि हैं। सुदेवी शुकों को प्रशिक्षण देती है, शकुन विद्या में निपुण है, बागवानी में निपुण है। शुक क्या होता है, यह सामरहस्योपनिषद में एक कथा के माध्यम से स्पष्ट किया गया है। एक वेदपाठी ब्राह्मण मृत्यु के पश्चात् शुक बनता है और एक कायस्थ मृत्यु के पश्चात् भ्रमर बनता है। भ्रमर/अलि की रुचि केवल रस ग्रहण करने में होती है। शुक को तो रस और विरस, दोनों को समान रूप से अपनाना है। सखी को आलि भी कहते हैं। अतः सखियां भ्रमरों का रूप हैं। यह कहा जा सकता है कि सुदेवी की स्थिति में मनुष्य यह निर्णय कर सकता है कि वेदों का वास्तविक अर्थ क्या है। शकुन कभी-कभी उत्पन्न होते हैं। इस विषय में अथर्ववेद का यह कथन उपयोगी हो सकता है कि यह दिशा विद्युत की है। यदि विद्युत की स्थिति होगी तो शकुन शकुन नहीं रह जाएंगे, वह जीवन की धारा बन जाएंगे।

सखी सुदेवी अतिहि सलौनी। काहूँ अंग नाहिने औंनी॥ 
सुठ सरूप मोहन मन भावै। रुचि सों सब सिंगार बनावै॥ 
कच कवरी गूँथत है नीकी। अति प्रवीन सेवा करैं जी की॥ 
अंजन रेख बनाइ संवारै। रीझि मुकर लै प्रिया निहारैं॥ 
सारो सुवा पढावत नीके। सुनिसुनि मोद होत सब हीके॥ 
अति प्रवीन सब अङ्ग में, जानत रस की रीति। 
पहिरे तन सारी सुही, बढवत पल पल प्रीति॥ 
कावेरीरु मनोहरा, चारु कवरि अभिराम। 
मंजु केशी अरु केसिका, हार हीरा छबि धाम॥ 
महा हीरा अति ही बनी, हीरा कंठ अनूप। 
उपमा कछु नहि कहि सकत, ऐसी सबै सरूप॥ 
कहे गौतमी तंत्र में, इन सखियन के नाम। 
प्रथम बंदि इनके चरन, सेवहु स्यामा स्याम॥ - श्री ध्रुवदास-कृत “बयालीस लीला”, पृष्ठ १५१ 

श्रीसूक्त में ईशान कोण में निम्नलिखित ऋचा का विनियोग है – मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि। पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥ इस ऋचा में वाचः सत्यं का उल्लेख शकुन विद्या को ओर इंगित करता प्रतीत होता है। साधना में यश से पूर्व की स्थिति यक्ष कही जा सकती है, जहां संशय विद्यमान रहता है। महाभारत में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद प्रसिद्ध है। आकूति का अर्थ डा. फतहसिंह ने अथर्ववेद १९.४.२ के लिए इस प्रकार लगाया है कि आ-समन्तात्, चारों तरफ से, कु-शब्दे, अभिव्यक्ति करना। चारों तरफ जिसका शब्द एक साथ होने लगे, बाढ की तरह, वह आकूति है। हमारे अन्दर तीन प्रकार की शक्तियां हैं – भावना शक्ति, ज्ञान शक्ति और क्रिया शक्ति। क्रिया शक्ति के कारण क्रिया केवल एक-दो अङ्गों में ही हो सकती है, सारा शरीर एकदम क्रियाशील नहीं हो सकता। इसी तरह ज्ञान भी स्थानिक है। लेकिन भावना शक्ति पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है, बाढ की तरह। इसका मूल है काम – वह काम नहीं जो वासना में प्रकट होता है, अपितु काम का दूसरा रूप – धर्म के अविरुद्ध काम। चित्तवृत्तियों का माता के समान पालन करने वाली, उन्हें शुद्ध करने वाली आकूति है। हरेक नर नारी के लिए यह सुलभ नहीं है। यह सुलभ तभी होगी जब हम बाह्य वृत्तियों से, काम-क्रोध-लोभ आदि से ऊपर उठें। यह परमात्मा की आह्लादिनी शक्ति है, राधा। आकूति को गीता में बुद्धि कहा गया है, ऐसी बुद्धि जहां सारे संशय मिट जाते हैं। 

अन्य चार मुख्य दिशाओं में ललिता, चम्पकलता, विशाखा व चित्रा के नाम प्रकट होते हैं। यह क्रम ललिता, विशाखा, चम्पकलता और चित्रा भी है। अतः इनके दिशा विन्यासों में भ्रम की स्थिति है। श्री ध्रुवदास-कृत “बयालीस लीला” पुस्तक( प्रकाशक : संत तुलसीदास, वृन्दावन, पृष्ठ १४८, दस मुक्तावली लीला) में ललिता रुचि उत्पन्न करती है, रच-रच कर पान खिलाती है, विशाखा वस्त्र पहनाती है, चम्पकलता व्यञ्जन परोसती है, चित्रा पेय प्रस्तुत करती है, तुङ्गविद्या गानविद्या में निपुण है, इन्दुलेखा कोकविद्या में निपुण है, रंगदेवी जपापुष्प सदृश वस्त्र धारण करती है और सुदेवी दाडिम पुष्प सदृश वस्त्र धारण करती है । 

Courtsey: Vinod Kumar Sharma, http://khudaniya2.blogspot.in/

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